छत्तीसगढ़
मुंगेली एसपी भोजराम पटेल भजन में थिरके, वर्दी की गरिमा और पुलिस आचार संहिता पर उठे सवाल
Mungeli SP Bhojram Patel danced to bhajans, questions raised on dignity of uniform and police code of conduct

मुंगेली। छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले में तैनात पुलिस अधीक्षक भोजराम पटेल इन दिनों एक वायरल वीडियो को लेकर चर्चा और आलोचना दोनों के केंद्र में हैं। वीडियो में वे धार्मिक भजन के दौरान पब्लिक के बीच पूरी आस्था और भावुकता से थिरकते दिखाई दे रहे हैं। माथे पर चंदन का टीका, पारंपरिक वेशभूषा और भक्तिभाव से ओतप्रोत चेहरे के साथ मंच के सामने उमड़े जनसमूह के बीच उनका यह नृत्य सोशल मीडिया पर तेजी से फैल गया। हालांकि जहां एक वर्ग इसे उनकी निजी श्रद्धा और सनातन संस्कृति के प्रति आस्था का उदाहरण मानकर प्रशंसा कर रहा है, वहीं एक बड़ा वर्ग पुलिस वर्दी की गरिमा, पेशेवर अनुशासन और आचार संहिता के उल्लंघन की दृष्टि से इसे गंभीर सवालों के घेरे में खड़ा कर रहा है।

भजन था—“बाके बिहारी की देख जटा मेरो मन होय लटा पटा”—और उसके सुरों पर जिले के एसपी भाव-विभोर होकर इस तरह थिरके मानो वे अपने आधिकारिक पद की नहीं, बल्कि व्यक्तिगत आस्था की किसी सांस्कृतिक सभा में मौजूद हों। लोग हैरान थे कि जिले का सबसे बड़ा पुलिस अधिकारी इस तरह मंच के सामने सार्वजनिक रूप से धार्मिक भावनाओं में डूबा दिखाई दे। वीडियो में पंडित और पुरोहित व्यास पीठ पर बैठे हैं और सामने कप्तान भोजराम पटेल श्रद्धालुओं के बीच अपनी उपस्थिति को साधारण भक्त की तरह दर्ज करा रहे हैं। यह दृश्य कई लोगों को आकर्षक लगा तो कई के लिए प्रशासनिक गरिमा का हनन।
आम धारणा यही रही कि सुशासन सरकार के घोषित ‘रामराज्य’ में यह दृश्य प्रतीकात्मक रूप से मेल खाता है। जिनके नाम में ही ‘राम’ जुड़ा है, वे अधिकारी जब भजन पर थिरकते नजर आए तो इसे सरकार की मंशा के अनुरूप आस्था और प्रशासनिक संस्कृति के संगम का जीवंत उदाहरण कहकर महिमामंडित किया गया। स्थानीय जनसमूह ने भी उस वक्त तालियों से उनका उत्साह बढ़ाया और सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखीं कि “सनातन की रक्षा के लिए कप्तान भोजराम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई।” लेकिन, सवाल यह है कि क्या पुलिस की वर्दी और पद की गरिमा इतनी लचीली है कि उसे आस्था और निजी भक्ति के रंगमंच पर उतारा जा सके?
कानून और प्रशासनिक अनुशासन के जानकार इस वायरल वीडियो को लेकर कहीं अधिक गंभीर हैं। उनका कहना है कि पुलिस की वर्दी सिर्फ कपड़ा भर नहीं है, यह सम्मान, जिम्मेदारी, अनुशासन और सुरक्षा का प्रतीक है। किसी भी पुलिस अधिकारी का वर्दी पहनकर या वर्दी के नाम का इस्तेमाल करते हुए सार्वजनिक रूप से इस तरह थिरकना आचार संहिता के खिलाफ माना जाएगा। यह न सिर्फ पुलिस की पेशेवर छवि को नुकसान पहुंचाता है बल्कि समाज में उस व्यवस्था पर भरोसा भी कमजोर कर सकता है, जिसकी जिम्मेदारी पुलिस पर है। कई राज्यों में पहले ही इस तरह की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में पुलिस मुख्यालयों ने वर्दी में डांस या रील बनाने पर सख्त मनाही की है।
ऐसे में मुंगेली एसपी का यह कृत्य लोगों को सवाल करने के लिए मजबूर कर रहा है कि क्या एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी को अपने पद की मर्यादा का ध्यान नहीं रखना चाहिए था? लोग यह भी कह रहे हैं कि यदि आस्था इतनी प्रबल थी तो उन्हें वर्दी या पद की गरिमा से अलग होकर आम श्रद्धालु की तरह शामिल होना चाहिए था। वर्दी का महत्व यह है कि वह किसी भी अधिकारी को व्यक्तिगत से सार्वजनिक भूमिका में ले आती है। जब कोई अधिकारी वर्दी पहनकर थिरकता है, तो वह सिर्फ खुद की छवि नहीं, पूरी पुलिस व्यवस्था की छवि गढ़ता है।
सोशल मीडिया पर इस वीडियो को लेकर खूब चुटकुले और कटाक्ष भी चल रहे हैं। किसी ने लिखा, “रामराज्य में कप्तान भी भक्तों के संग लटा-पटा हो रहे हैं।” किसी ने तंज कसा, “लगता है जिले में कानून व्यवस्था इतनी दुरुस्त है कि कप्तान अब भजन मंडली संभाल रहे हैं।” कुछ लोगों ने वीडियो को शेयर करते हुए यह सवाल भी उठाया कि अगर किसी आम कांस्टेबल ने वर्दी में इस तरह भजन पर डांस किया होता तो क्या उसे विभागीय कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ता? फिर बड़े अधिकारी पर यह छूट क्यों? यह सवाल व्यवस्था में दोहरे मापदंड की ओर इशारा करता है।
कानून विशेषज्ञों का कहना है कि पुलिस अधिनियम और आचार संहिता का मूल उद्देश्य यही है कि वर्दी में रहते हुए किसी भी गतिविधि से बचा जाए जो गरिमा को नुकसान पहुंचाए या पेशेवर छवि पर दाग लगाए। जब किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का वीडियो वायरल होता है, तो वह सिर्फ स्थानीय ही नहीं बल्कि पूरे राज्य की पुलिस पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। आम नागरिक का भरोसा उस समय कमजोर होता है जब वह पुलिस को धार्मिक या राजनीतिक गतिविधियों में पक्षपाती या गैर-व्यावसायिक देखता है।
दूसरी ओर समर्थकों का तर्क है कि अधिकारी भी इंसान हैं और उन्हें अपनी आस्था व्यक्त करने का अधिकार है। लेकिन आलोचकों का कहना है कि व्यक्तिगत आस्था और सार्वजनिक जिम्मेदारी के बीच स्पष्ट रेखा खींची जानी चाहिए। एक पुलिस कप्तान जब मंच पर भक्तिभाव में थिरकते हैं, तो यह उनकी व्यक्तिगत आस्था से ज्यादा प्रशासनिक पद की छवि बन जाती है। यही वजह है कि वीडियो के सामने आने के बाद जिले में चटखारे लेकर चर्चा हो रही है कि सुशासन सरकार के रामराज्य में अब अफसरशाही भी भजन-कीर्तन संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है।
इस पूरे प्रसंग में सबसे बड़ी चिंता यही है कि जनता का भरोसा पुलिस पर कमजोर होता है। पुलिस से अपेक्षा रहती है कि वह निष्पक्ष, सख्त और पेशेवर हो। लेकिन जब जनता का सामना ऐसे वीडियो से होता है, तो उसके मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वही अधिकारी अपराध नियंत्रण और कानून-व्यवस्था संभालने में भी उतने ही गंभीर और निष्पक्ष रहेंगे, जितने वे भजन में थिरकते समय आस्थावान नजर आते हैं।
कई वरिष्ठ नागरिकों ने इस वीडियो को देखकर कहा कि प्रशासनिक अधिकारियों की जिम्मेदारी सिर्फ कानून पालन तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी छवि भी आम जनता के लिए आदर्श मानी जाती है। ऐसे में अगर वही अधिकारी गरिमा और अनुशासन की मर्यादा तोड़ते हैं, तो यह आने वाली पीढ़ियों के लिए गलत संदेश है। युवाओं के बीच यह धारणा बन सकती है कि वर्दी महज दिखावा है और असल में उसका अनुशासन कहीं मायने नहीं रखता।
कुल मिलाकर, भोजराम पटेल का यह वीडियो जहां एक ओर उनके भक्तिभाव और निजी आस्था का प्रदर्शन है, वहीं दूसरी ओर यह प्रशासनिक गरिमा, पुलिस आचार संहिता और पेशेवर अनुशासन पर गंभीर प्रश्न खड़ा करता है। क्या पुलिस विभाग इस मामले में कोई संज्ञान लेगा? क्या राज्य सरकार अपने अधिकारियों को आस्था और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाए रखने की याद दिलाएगी? या फिर यह मामला भी सोशल मीडिया की तात्कालिक चर्चा बनकर ठंडा पड़ जाएगा?
मुंगेली के इस वीडियो ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या अफसरशाही के लिए वर्दी सिर्फ नौकरी का हिस्सा है या फिर यह समाज के लिए भरोसे और अनुशासन का प्रतीक है, जिसे किसी भी कीमत पर हल्के में नहीं लिया जा सकता।